भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
संकल्प (2) / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
Kavita Kosh से
मैं चीख रहा हूँ युगों से
इतिहास के पन्नों पर
बियाबान जंगलों में
संसद से सड़क तक
परन्तु मैं
अपनी आवाज के उत्तर में
सिर्फ अपनी आवाज ही
सुन पा रहा हूँ
असम्भव है मूल्यांकन मेरे उत्पीड़न का
लेकिन मैं इससे घवड़ाता नहीं
मैं अकेला ही युग के शकुनियों से
लड़ता रहूँगा अन्तिम सांस तक