भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

संकल्प / प्रेमरंजन अनिमेष

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम ज़िन्दगी हो मेरी
तुम्हारे साथ अभी
बहुत कुछ करना है

जोड़ने हैं सेतु नए
गाँठनी है नाव
पथ्य पन्थ का पकाना
फेंट धूप छाँव

हाथों में हाथ होंठ होंठों पे धरना है

चलतीं नदियाँ कहीं
पुकारते पहाड़ ये
हाँकता भीतर भरा
गुबार ये उजाड़ ये

भूलना किसी को क्‍यों सभी में बिसरना है

कितना कुछ बाक़ी है
कितना कुछ छूटा है
बून्द-बून्द रीत रहा
तन का घट फूटा है

जितनी हैं बवाइयाँ नेह वहाँ भरना है

पोंछनी है आँख हर इक
और सहेजनी हँसी
सत्तू में सान नमक
जैसी यह तनिक ख़ुशी

काण्टों से चोटों से और भी निखरना है

अपनों से मिलना है
सपनों को लिखना है
दुनिया को लखना है
दुनिया को दिखना है

रात के समन्दर में डूब कर उभरना है

कहा नहीं किया नहीं
जो मन में गुन आया
साज छूट टूट गए
साथ था जिन्हें लाया

एक इसी जीवन में जीकर सब मरना है...