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संध्या के पहले तारे से / महेन्द्र भटनागर

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शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?
जब कि क्षण-क्षण पर प्रगति कर रात आती जा रही है,
चंद्र की हँसती कला भी ज्योति क्रमश: पा रही है,
हो गया है जब तिमिरमय विश्व का कण-कण हमारा !
शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?
बादलों की भी न चादर छा रही विस्तृत निलय में,
और टुकड़े मेघ के भी, हो नहीं जिसके हृदय में,
है नहीं कोई परिधि भी, स्वच्छ है आकाश सारा !
शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?
जब कि है गोधूलि के पश्चात का सुन्दर समय यह,
हो गये क्यों डूबती रवि-ज्योति में विक्षिप्त लय यह ?
बन गयी जो मुक्त नभ के तारकों को सुदृढ़ कारा !
शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?