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संध्या के माथे पर / संजीव वर्मा ‘सलिल’

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संध्या के
माथे पर सूरज सिंदूर
मोह रहा मन को नीलाभी नभ-नूर

बाँचते परिंदे
नित प्रेम की कथाएँ
घोंसले छिपाते अनुबंध की व्यथाएँ
अंतर के मंतर से अंतर्मन घायल-
भुला रही भाषाएँ नेह की कथाएँ
अपने ही सपने कर
देते हैं चूर

चिमनियाँ
उगलती हैं, रात-दिन धुआँ
खान-कारखाने हैं, मौत का कुँआ
पूँजी के हाथ बिके कौशल बेभाव-
भूखा सो गया, श्रम का जठर फ़िर मुआँ
मदमाती हूटर की कर्कश
ध्वनि क्रूर

शिक्षा की
आहट, नव कोशिश का दौर.
कोयल की कूक कहे आम रहे बौर
खास का न ग्रास बने आम जन बचाओ
चेतना मचान पर सच की हो ठौर
मृगनयनी नियतिनटी जाने
क्यों सूर?

लेन-देन
लील गया निर्मल विश्वास
स्वार्थहीन संबधों पर है खग्रास
तज गणेश अंक लिटा लिखा रहे आज-
गीत-ग़ज़ल मेनका को महा ऋषि व्यास
प्रथा पूत तज चढाए माथे
पर धूर

सीमेंटी भवन
निठुर लील लें पलाश
नेहहीन नातों की ढोता युग लाश
तमस से अमावस के हो नहीं हताश
कोशिश-श्रम के बल पर लक्ष्य लें तलाश.
धीर धरो, पीर सहो, काटो
नासूर

बहुत झुका
विन्ध्य, सिर उठाये-हँसे.
नर्मदा को जोहिला का दंश न डँसे
गुरु-गौरव द्रोण करे पुनः न नीलाम-
कीचक के कपट में सैरंध्री न फँसे
'सलिल' सत्य कान्हा को भज
बनकर सूर