संभावना / सौमित्र सक्सेना
मेरी अस्थियाँ
खेल रही हैं
पानी के साथ
धारें बटोर-बटोर के उन्हें
एक जगह ले आती हैं
और फिर
झटक के बिखरा देती हैं उनको ।
सोचता हूँ
यदि
खाकी मिट्टी और
सलेटी राख के रवों को
फिर से गूँद दिया जाए अगर एक साथ
तो क्या
फिर से बन पाऊँगा मैं
अपनी देह?
यूँ बहते-बहते
इस गंदली नदी की लहरों में
शायद कल किसी
घाट पर कपडे़ धोती धोबिन
के पैरों से चिपट जाऊँ
या फिर
पास की मिट्टी में दबे
फसलों के बीजों की रगो में
जाके पौधा बनूँ ।
मुझे नही पता है कि
मेरे साथ क्या होगा।
एक संभावना ये भी है
कि सूखे के वक़्त
रेत में मिलकर हवा में उडूँ
और
वापस अपने घर आ जाऊँ
अपनी ही तस्वीर की
धूल बनकर ।
मुझे मालूम है
तुम उस धूल को
अपनी साडी कपडे़ से
छूकर पोछ दोगी
पर शायद
इसी संभावना को जीने के लिए हो तो
मैं तुम्हारे पास
फिर से
जाऊँगा ।