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सखी! यह अतुल अनोखी बात / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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सखी! यह अतुल अनोखी बात।
भीतर कोटि-कोटि रबि राजत, बाहर घोर अँधेरी रात॥
भीतर खुले द्वार रस-गृह के, बाहर लगे कठोर कपाट।
बाहर निर्जनता-नीरवता, भीतर लगी रूप की हाट॥
असती परम सती प्रबेस कर भीतर, रही नित्य सत-संग।
बिनु जल, स्नान किये नित रहती, भींगी प्रीतम के रस-रंग॥
परस-रहित तन परस-परायन, परसत स्याम सलोने गात।
अग-जग-रहित दिय तहँ गोपन माधव मधुर-मधुर मुसुकात॥
पति तजि तप-मूरति, पर-पति-रत करत दांत अस्रांत बिहार।
भोग-बिराग-राग नित रंजित सहज बिराग-बिराग बहार॥
सिव-अज-सेष-व्यास-सुक-नारद-सारद सतत करत गुन-गान।
नित निर्ग्रन्थ मुक्त मुनि-जन-मन अति सिहात लखि लीला-तान॥