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सखी, पर्व है उजियारे का / कुमार रवींद्र
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जैसी रची
रँगोली बाहर
वैसी रचे तुम्हारे भीतर भी
सखी, पर्व है उजियारे का
घर-घर दीप जले
तुम हो, सुनो, पुजारिन रितु की
अंतर नेह पले
तुम दमको
बिजुरी-सी
दमके अपना यह घर भी
इन्द्रधनुष के रंग सँजोये
तुमने देहरी पर
बीच-बीच में आँके
इनमें हैं ढाई आखर
कविताई के
बीजमंत्र
प्रश्नों के उत्तर भी
नहीं रँगोली
यह तो रचना है अपने सुख की
रहे साथ हम
नहीं पड़ी छाया हम पर दुख की
हम उमड़े
झकास में
सजनी, उमड़ा सागर भी