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सच-झूठ / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन

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केवल झूठ, भयंकर झूठ ...
इस तरह झूठ के सहारे
भला कोई जीवन जीता है कभी!
तुम्हें किसी के लिए सच होना ही पड़ेगा
आज नहीं तो कल तुम्हें किसी से कहना ही होगा
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ:
ऐसा कहते सुखऱ् लाल हो उठेगा चेहरा
हो सकता है दम ही घुटने लगे
फिर भी जब हृदय में से
पत्थर को खींचकर निकालते हुए
‘अब मुझसे और सहन नहीं हो रहा’ -- कहकर
पैरों के पास रख दोगे उस पत्थर को
तब, कहो कैसे होगी मुक्ति!
रक्तिम चेहरे से बहेगी मुक्तधारा
सीने के पास, नीचे और भीतर झूठ का पहरा है
उसे इस तरह तोड़ना चाहकर भी
नहीं तोड़ना और दुःख पाना क्या ठीक है!

मेरे लिए भले ही न हो
लेकिन तुम्हें ख़ुद के लिए
सच्चा होना ही होगा।