भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सच-सच कह दो पापाजी! / रमेश तैलंग

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बात-बात पर गुस्से में न डाँटो हमको पापाजी!
हम बच्चों के मन में क्या है, ये भी समझो पापाजी!

बचपन में तो कभी आप भी
करते होंगे शैतानी
थोड़ी बहुत बहानेबाजी
थोड़ी-सी आना-कानी,
टाला-टूली करो न हमसे, सच-सच कह दो पापाजी!

हँसी-खुशी के कुछ पल ही तो
मिल पाते हैं दिनभर में,
उछल-कूद करने को लेकिन
जगह नहीं दिखती घर में,
अपने इस छोटे से घर का नक्शा बदलो पापाजी!

भीतर-भीतर जी न घुटता
तो बोलो, हम क्यों कहते?
डाँट आपकी या मम्मी की
सुबह-शाम यूँ क्यों सहते?
कभी बाग में हमें घुमाने को भी निकलो पापाजी!