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सच से आँखें मूंदकर चलना तुम्हें अच्छा लगा / शैलेश ज़ैदी

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सच से आँखें मूंदकर चलना तुम्हें अच्छा लगा,
क्या हुआ क्या जिन्दगी में ज़ख्म कुछ गहरा लगा.

क़ैद का पिंजरे का आदी था परिंदा इस क़दर,
पेड़ की शाखों पे जब आया उसे डर सा लगा.

मुद्दतों के बाद मिलने पर क्या मजबूरियां,
धड़कनें होठों तक आयीं बोलना बेजा लगा.

आप वादों से मुकर जायेंगे ये सोंचा न था,
जब हकीकत सामने आयी तो सब धोखा लगा.

जाने कैसे ज़िंदगी की सारी क़द्रें मिट गयीं,
आद्मीन सैलाब में बहता हुआ तिनका लगा.

हर क़दम पर बेवफाई के करिश्में देखकर,
छटपटाती ज़िंदगी का हर वरक सादा लगा.