Last modified on 18 नवम्बर 2014, at 21:51

सजीव खिलौने यदि / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

सजीव खिलौने यदि
गढ़े जाते हों विधाता की कर्मशाला में,
क्या दशा होगी उनकी -
यही कर रहा अनुभव मैं
आज आयु-शेष में।
यहाँ ख्याति मेरी पराहत है,
उपेक्षित है गाम्भीर्य मेरा,
निषेघ और अनुशासन में
सोना उठना बैठना है।
‘चुप रहो भी तो जरा’
‘ज्यादा बोलना अच्छा नही’
‘और भी कुछ खाना होगा’-
ये हैं आदेश निर्देश
कभी भर्त्सना में, कभी अनुनय में,
जिनके कण्ठ से निकलते हैं
उनके परित्यक्त खेल-घर में
टूटे-फूटे खिलौनों की ट्रैजेडी में
अभी तो कुछ ही दिन हुए, पड़ी है कैशोर की यवनिका।
कुछ देर तो
स्पर्धा विरोध करता रहता हूं,
फिर ‘राजा बेटा’ बनकर
जैसे चलाते है वैसे ही चलता हूं।
मन में मैं सोचता हूं,
वृद्ध भाग्य अपना शासन-भार
सौंपकर कुछ दिन नूतन भाग्य पर
दूर खड़ा कटाक्ष से हँसता है,
हँसा था जैसे बादशाह
आबूहुसेन का खेल
रचकर अन्तराल मंे।
अमोघ विधि के राज्य में बार-बार हुआ हूं विद्रोही;
इस राज्य में मान लिया है
उस दण्ड को
जो मृणाल से भी कोमल है,
विधुत से भी स्पष्ट है
तर्जनी जिसकी।

‘उदयन’
प्रभात: 23 नवम्बर