सड़क / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
हर वक्त धड़धड़ाती हैं
मोटरगाड़ियाँ
कभी कोई ब्रेक लगाता है
कभी कोई धमधम बजाता है
कभी कोई थूक देता है
कभी कोई मूत देता है
जानवरों की तो पूछो ही मत
जब जहाँ जी चाहे
गोबर, लीद गिरा देते हैं
कभी कोई खोद देता है
कभी कोई टेंट गाड़ता है
फिर उसे
उखाड़ता है
मेरे जख्मों को
कोई देखने वाला नहीं
मैं राष्ट्र की धमनी
जीवनवाहिका नली
कोई नहीं समझता
कि राह से ही
पहुँचता है
मंजिल पर
चलने को होता है
एक आरामदायक रास्ता
वरना पैरों से काँटे रहते निकालते
जूतों को भी सिर धर ले जाते
पर क्या करूँ इस प्रदूषण का?
क्या करूँ इन गंधों का?
कभी जी मिचलाता है
कभी उबकाई आती है
जी चाहता है उठकर
भाग जाऊँ कहीं दूर
पर फिर भी
पैरों मंे पड़ी रहती हूँ
अब तो लाशों के ढेर भी
मेरी छाती का बोझ बढ़ाते हैं
जब नये रईसजादे
महँगी मोटरगाड़ियों पर चढ़
गरीब लोगों को कुचलते चले जाते हैं
भर जाता है खून से शरीर मेरा
बहने लगते हैं आँसू
कैसे धोऊँ इन धब्बों को
कैसे दुख-दर्द बाँटूँ उनका
इंतजार में जो अपनों के
कि घर से बाहर गया
कमाकर लौटेगा
ये क्या पता था
कि उसका शरीर धूल में लौटेगा।
दिन रात चीखें मारती हूँ
रोती हूँ फूट-फूटकर
पर मेरी कोई सुननेवाला नहीं।