भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सत्ता की कोयल / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
वो चाहते हैं कि हम
सत्ता की कोयल बने रहें
चाहे बसन्त आए न आए
एक डाल पर एक ही धुन में
सत्ता के गुन गाएँ
यूँ ही राग में तने रहें हम
उनका चारण बने रहें हम
चाहे मन के अरुण कमल ही
जेठ-दुपहरी की लपटों से
झुलसें या मुरझाएँ
सत्ता के गुन गाएँ
लौट-लौट कर फिरत की तानें
घूम-घूम कर त्रिवली साधें
कर-कटि-करधनी,कुच-केश-किंकणी,नुपुर बाजे
ललित लास्य भर अंग छलकाएँ
सत्ता के गुन गाएँ
आरक्त नयन,मद बुझे बान
अधरों पर खिले कुटिल मुस्कान
अन्तर्मन में व्यथा भरी हो
दरबारी सा पालागन कर
उनको मगर रिझाएँ
सत्ता के गुन गाएँ