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सत्ता के खिलाफ़ माँ / ज्योति रीता
Kavita Kosh से
लाश हो चुकी माँ के पास
बिलखता बच्चा
क्या सोचता होगा?
माँ उठती क्यों नहीं
आज पुचकारती भी नहीं
मेरे रोने पर
सीने से लगाती भी नहीं
इतनी देर तक कभी सोई भी तो नहीं?
ज़रूर थक गई होगी
थक कर चूर हो गई होगी,
हाँ!
माँ थक गई होगी
निरंकुश सत्ता के आगे,
और चुप होकर
सो गई होगी गहरी निंद्रा में,
हाँ सचमुच!
माँ!
मुझे लेकर बहुत दूर तक चली थी,
भूख और प्यास भी लगी थी,
माँ!
बहुत देर तक रोई भी थी,
निकम्मी सत्ताधारी से निराश भी थी,
माँ घर ही तो जाना चाहती थी
क्या माँ बहुत दूर जाना चाहती थी?
मैं माँ की अकाल छाती से सटा था
तभी यह हादसा हुआ
और
और
महीनों से जगी माँ
सो गई
हमेशा के लिए
निर्दयी निरूपाय सत्ता के खिलाफ़॥