भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सदा सुविचार करना है / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
सृजन है साधना हमको सदा सुविचार करना है।
बहुत है लेखनी में बल इसे साकार करना है।
कहीं बरखा बहारें हों कहीं अति वृष्टि का मौसम,
कठिन यह आपदा के पल हमें अब पार करना है।
करे जो मर्म को आहत, कुटिल भाषा न बोलें हम
करें हर कर्म धीरज से, नहीं परिहार करना है।
नहीं है त्याग जीवन में, विलासी हो गये जो जन,
विलखती अस्मिता अपनी, हमें प्रतिकार करना है।
दुखी कुछ आचरण करते, गले की फाँस बनकर वह,
मढ़ें क्यों दोष औरों पर, हमें उपचार करना है।
दरिन्दों से बचें कैसे, उठा विश्वास अपनों से,
उठा आक्रोश है मन में, हमें संहार करना है।
तड़प जो सो रही मनमें, जगाना आज है हमको
मिटा जो प्रेम जीवन से, नया संचार करना है।