भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सद्गृहणी की समाधि / रणजीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इसी में दफ्ना दूंगा इसे मैं
इसी की सफ़ाई करते करते
इसे झाड़ते, रगड़ते, धोते हुए
पोंछते हुए इसी की ट्यूबलाइटें और पंखे
मरी है यह।
कितने कितने दिन तक समझाता रहा उसे
कि देश में पेयजल की कमी है
आँगन धोने में इसे बरबाद न किया करो
ज्यादा से ज्यादा हफ्ते में दो बार धो लिया करो इसे
पर वह नहीं मानी।
पुताई के बाद
वाउण्ड्री वाल पर मिट्टी का एक धब्बा भी दिखाई देता
तो उसे अखरता रहता था आते-जाते
और जब तक वह उसे हटाने की कोशिश में
समोसम भी नहीं रगड़ लेती
उसे शान्ति नहीं मिलती थी।
अब कैसी शान्त पड़ी है
अपने साफ-सुथरे घर में।
मन तो कहता है
कि इसी घर में उसकी अन्त्येष्टि कर दूँ
इस पर पेट्रोल छिड़क कर
वैसे भी अब क्या बचा है इसमें मेरा ?
पर नहीं
फूंक दूँगा इसे तो कहाँ बैठ कर
बहाऊँगा आँसू उसकी याद में
कहाँ बिसूरूंगा उसके साथ बिताए हुए
चालीस बरसों पर ?
इसलिए शान्त भाव से
इसी आँगन में दफ़्ना दूँगा इसे
जिसे उसने धो-धो कर ठण्डा किया है हर रोज़
इसी घर को बना दूँगा उसकी मज़ार
और उसी पर लगा दूँगा एक समाधिलेख :
यहीं सोयी है
सफ़ाई के लिए शहीद हुई एक सद्गृहणी
जिससे दीवार पर कोई
साधारण से साधारण धब्बा तक सहा नहीं जाता था।
सफाई के इसी जंगल में
खेत रही बिचारी
और चट कर ली गयी
पूर्णतावाद के दिलक़श दरिन्दों के द्वारा।