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सन्नाटा / मख़दूम मोहिउद्दीन
Kavita Kosh से
कोई धड़कन
न कोई चाप
न संचल
न कोई मौज
न हलचल
न किसी साँस की गर्मी
न बदन
ऐसे सन्नाटे में इक आध तो पत्ता खड़के
कोई पिघला हुआ मोती
कोई आँसू
कोई दिल
कुछ भी नहीं
कितनी सुनसान है ये रहगुज़र
कोई रुख़सार तो चमके, कोई बिजली तो गिरे