सपने / सीमा अग्रवाल

दिन के कन्धों पर लटके है
वेतालों से सपने

मजबूरी है सुननी ही है
नित इक नई कहानी
घोड़े हाथी की
राजा रानी की वही पुरानी
कुटिया में फिरते रहतें हैं
दिक्पालों से सपने

झूठ ओढ़ कर मौन रहे तो
चूर चूर होना है
सच बोले तो नए सिरे से
बोझे को ढोना है
थका थका दिन और-
चतुर मायाजालों से सपने

मुक्ति यत्न प्रश्नों की-
प्राचीरों में दिखते बेबस
समाधान के साथ हर दफ़ा
मिले नए असमंजस
अट्टहास कर रहे दशा पर
वाचालों से सपने

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