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सपने में मत आओ / अमरेन्द्र

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सपने में मत आओ सपना तो बस छल है
परछाँही भी उभर न पाती यमुना जल है।

मेरे मीत पुकारूँ तुमको मैं जग-जग कर
चलते-चलते कलयुग तक आया है द्वापर
एक मिलन ही मेरे चंचल मन का हल है।

छाया के पीछेे से कैसा मिलन तुम्हारा
सोख रहा है गंगा जल को मरूथल सारा
पूनम पर ये पुता हुआ कैसा काजल है।

तुम आओ, आँखांे से देखूँ, प्यार करूँ मैं
कब तक अनदेखी छवि का शृंगार करूँ मैं
प्यार मेरा जल-जल पलता है, दुर्वा दल है।