सपने में मोर / मुकेश मानस
ख़्वाब में
एक आवाज़ की दस्तक ने
मुझको जगा दिया
मेरे कमरे की ख़िड़की से
झाँक रही थी सुबह
बादल छाए हुए थे आसमान में
बारिश कभी भी हो सकती थी
बड़ा ही खुशगवार समाँ था
और वो आवाज़ थी
कि मुसलसल आ रही थी
मन को छुए जा रही थी
जाने क्या था उस आवाज़ में
कि याद आया मुझे अपना गाँव
अपना मुहल्ला, अपना घर
और अपने मुहल्ले का तालाब
उसके किनारे खड़े हरे-भरे पेड़
अपने खेत और बगीचा अमरूद का
और ऐसी जाने कितनी ही चीज़ें
जो मेरे बचपन से जुड़ी थीं
जिनसे बिछ्ड़कर
फिर कभी मिलना नहीं हुआ
मैं उठा
और उस आवाज़ के पीछे-पीछे
चलता चला गया
मैंने देखा कि मेरे फ्लैट की छत पर
अपने समूचे पंख फैलाए
नाच रहा था एक मोर
वो सचमुच एक मोर था
जो न जाने कहाँ से आकर
नाच रहा था
मेरे फ्लैट की छत पर
उसे नाचता देख
न जाने क्यों
भर आईं मेरी आँखें
आँख खुली तो देखा
कि रात अभी बाक़ी थी
और अन्धेरा था कमरे में
मैंने महसूस किया
अपनी आँखों में गीलापन
मैंने देखा था एक सपना
और सपने में देखा था
जीता जागता एक मोर
सपना तो सपना ही था
मगर हकीकत थी कुछ और
किसी अथाह सागर में डूब गये थे
दिल्ली के सारे गाँव
सारे ताल, सारे खेत
पेड़ सारे हरे भरे
खो गये थे किसी अन्धेरी सुरंग में
दिल्ली की सड़कें और इमारतें
लील गई थीं
दिल्ली के सारे मोर
रचनाकाल : 2004