सपनों में गाँव / कुमार कृष्ण
सपनों में जितनी बार आता है गाँव
खुलने लगते हैं बचपन के शरारती पन्ने
उसी में लगती है गूँजने-
हल की पूजा
घराट की आवाज़
मैं तैरने लगता हूँ गाँव के पोखर में
अचानक फँस जाता हूँ दलदल में
कूद पड़ते हैं मुझे बचाने
बचपन के तमाम दोस्त
जो कतई नहीं जानते तैरना
पचास बरसों से भी नहीं बदला
गाँव का पनघट
नहीं बदलीं गाँव की पगडंडियाँ
वैसे हर साल बंजर हो जाते हैं कुछ खेत
फिर भी उसी तरह बजती है आज भी
गाँव के स्कूल की घण्टी
उसी तरह बच्चे पढ़ते हैं-
फटे टाट पर भारत का इतिहास
अक्सर लगती है डराने सपने में
स्कूल मास्टर की आवाज़-
बताओं क्यों कहते थे भारत को
सोने की चिड़िया
इधर देखो-
दीवार पर लटका भारत का नक्शा
इसी में ढूँढ़ो गंगा, यमुना और सरस्वती
कुर्सी पर ऊँघते-
अचानक चिल्ला पड़ते थे मास्टर जी-
क्या मिली सरस्वती?
डरते-डरते पूछ लेता था बगल वाला लड़का-
मास्टर जी सरस्वती कहाँ है?
कुर्सी से उठकर उत्तर देते कहते थे-
मेरी जेब में है
एकाएक टूट जाता है सपना
खो जाता है सपनों में गाँव।