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सपनों से ख़ाली शहर में / पूजा खिल्लन
Kavita Kosh से
कई बार खड़ी होती है वह आईने के सामने
और बिखेर देती है एक निरपेक्ष मुस्कान
ख़ाली कमरे की सजावट में
फूलों की तस्वीर में क़ैद एक ख़ुशबू
फैल जाती है उसके इई-गिर्द
किसी अजनबी ज़ख़्म के अहसास में,
नींद में उतरा गुब्बार
लौट आता है सपनों से ख़ाली शहर
की दीवार पर दस्तक देकर
तब जबकि पहले से ज़्यादा मुश्किल होता
है लौटना यक़ीन की परिधि पर
पोंछना ख़ुद के आँसू
तसल्ली देना अपने आप को
फ़ुर्सत से ख़ाली किसी लम्हे की
थकान को पोंछकर
वह पढ़ती है कविता
कामचलाऊ लहजे में
किसी जमे हुए समय की नब्ज़ की जुम्बिश के लिए।