सफर / ऋचा दीपक कर्पे
मैं चलती रही मंज़िल आँखों में लिये
मचलती रही एक हमसफ़र के लिये
हर रास्ता अब मेरा राहगुज़र हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है...
कभी उगते सूरज को सलाम कर दिया
कभी पलकों के तले चाँद ढल गया
हर ज़र्रा मेरे लिए सितारा हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है...
पतझड का सूखा दरख़्त मिल गया
कभी गर्द हरा मंज़र गुलशन खिल गया
हर रंग मेरा मनपसंद हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है...
इक गहरी ठहरी हुई झील मिल गई
इक बलखाती इठलाती नदिया मचल गई
हर आँसू मेरा दरिया हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है...
कभी बेकरार बेताब मेरे कदम थे
कभी सुस्त अलसाए से हम थे
अब इंतज़ार ही मेरा अंजाम हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है...
कोई कदम दो कदम साथ चल दिया
कोई अगले मोड़ पर अलविदा कह गया
ज़हन में यादों का काफ़िला हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है...