सफल लोक / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
विकसित, कुसुमित लता कंटकित है दिखलाती;
रुधिर-रहित है नहीं पूत पय-पूरित छाती।
रस से भरे रसाल-मधय हैं बीए होते,
मिले कहाँ मल-हीन सलिल के सुंदर सोते।
सुख-दुख का है साथ, तेज-तम मिले हुए हैं;
कीच बीच कमनीय कमल-कुल खिले हुए हैं।
तिमिरमयी रजनी प्रभात-आभा है लाती;
पा वसंत रस-हीन तरु-लता है सरसाती।
नियति नियम है यही, यही विधि की है लीला;
नव-नव-केलि-कला-निकेत है नभतल नीला।
सफल लोक है वही, काल-गति जो अवलोके;
रखे न प्रिय फल-चाह बीज विष-तरु के बोके।
कभी कुलिश हो, कभी कुसुम-कोमल बन जावे,
विधु-सा मधुर विकास, तपन-सा ताप दिखावे।
वारिधि-सा गंभीर, धीर, मर्यादित होवे;
सुरसरि-सलिल-समान मलिन मानव-मल धोवे।
मानस होवे सकल गौरवित गुण-तरु-थाला;
उर पर विलसे रुचिर नीति-सुमनावलि-माला।
इस रहस्य को जान बन प्रकृति-देवि-उपासी;
हों प्रवास-सुख-सुखित प्रवासी भारतवासी।