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सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए / 'ज़ौक़'

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सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है
कौन फिरता है ये मुरदार लिए फिरती है

घर से बाहर न निकलता कभी अपने ख़ुर्शीद
हवस-ए-गर्मी-ए-बाज़ार लिए फिरती है

वो मेरे अख़्तर-ए-ताले की है वाज़ूँ गर्दिश
के फ़लक को भी निगूँ-सार लिए फिरती है

कर दिया क्या तेरे अबरू ने इशारा क़ातिल
के क़ज़ा हाथ में तलवार लिए फिरती है

जा के इक बार न फिरना था जहाँ वाँ मुझ को
बे-क़रारी है के सौ बार लिए फिरती है