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सब ख़लाओं को ख़लाओं से भिगो सकता है / रियाज़ लतीफ़

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सब ख़लाओं को ख़लाओं से भिगो सकता है
आदमी रूह के अंदर भी तो रो सकता है

ये सियाही का सिरा जाने कहाँ हाथ आए
मिरा साया तिरा बातिन भी तो हो सकता है

दस्तरस तेरे समुंदर की है तुझ से भी परे
तू मुझे आँख से बाहर भी डुबो सकता है

ले तो आया है मुझे मौत की गर्दिश से अलग
तू मुझे साँस के महवर पे भी खो सकता है

अपने अन्फ़ास की तहरीक पे बिखरा है मगर
तू मेरे लम्स में यकजा भी तो हो सकता है

तेरी मिट्टी ने समोया नहीं तो क्या है ‘रियाज़’
तू जो इस जिस्म के बाहर कहीं सो सकता है