भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सब जुटे हैं / दिनेश सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब जुटे हैं
खिलाने में फूल गूलर के
भूलकर रिश्ते पुराने
प्रिया-प्रियवर के

गगन के मिथ से जुड़ा है
चाँद तारे तोड़ना
या कि उनकी दिशाओं का
मुँह पकड़कर मोड़ना

सभी वह मिथ धरे हैं
मन में चुरा करके

शीश पर पर्वत उठाना
सिन्धु पीकर सोखना
भूख में सूरज निगलकर
बजाना थोथा चना

बहुत ऊँचे उड़ रहे पंछी
बिना पर के

नेह के नाते बचे जो
देह में खोते गए
हलक तक प्यासे कि पोखर-
कूप के होते गए

हम कहीं के ना रहे
ना घाट, ना घर के