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सबके भीतर ज्वार नेह का / कुमार रवींद्र
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सबके भीतर ज्वार नेह का
अपने भीतर भी
पूनो का है चाँद
सिंधु में उजियारे बोता
सागर उमड़-उमड़कर
धरती का आंचल धोता
पर्व मनाता तारामंडल
यह अपना घर भी
देहराग गातीं इच्छाएँ
हमें टेरतीं रोज़
रात-रात भर फिर चलती
मीठे सपनों की खोज
करने लगता है महमह
फूलों-सा पत्थर भी
सूरजमुखी साँस में
चाँदी की लहरें उठतीं
अंदर-बाहर की संज्ञाएँ
एक साथ जुटतीं
हम-तुम बौराते, सजनी
बौराता पोखर भी