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सबद / निरुपमा सिन्हा
Kavita Kosh से
आँखों और आँसुओं
के बीच
बिछी होती है इक परत
जन्म लेती है जिनमें
स्नेह शताब्दियाँ
पुतलियाँ डुलाती है
चँवर
जैसे रखा हो
गुरूद्वारे में गुरुग्रंथ
सांचे दरबार में
स्वर बन
"शबद”सी
डोलती
प्रीत हमारी
जैसे!
निष्पाप कन्या
भूल बैठी हो
अपना धरम!