सबदां रो न्याव है कविता / ओम पुरोहित कागद
रात मनै/सुपनै मावं
वेद व्यास जी मिल्या
हूं पूछ्यो, व्यास जी !
थे तो लूंठा विद्वान हो
ज्ञान रै छेतर मांय
ज्ञान री लूंठी खान हो
थे गाीता अर महाभारत सा
ग्रंथ रच राख्या है
भांवां नै छंदा मांय
सिकंजै ज्यू कस राख्या है
भासा अर सबदां नै
कलम रै बस कर राख्या है
बताओ,आ कविता के हुवै ?
व्यास जी मुळक्या
पछै बात कर टुळक्या
कैवण लागा, भाया ।
कविता तो
हूं भी घणी लिखी ‘र बांची
पण/आज तांई
आ ठा नीं पड़ी
क आ हुवै के है!
इतो तो जाण्यो’ ई
क जद आ माथै मांय कुळबुळावै
उण टैम
लिखण आळौ
गर्भवती लुगाई दांई
मां-ई-मां
भोत छटपटावै ।
म्हैं कैयो फेर भी ?
बोल्या व्यास जी, भाया ।
नागै डील
फैक्टरयां/खेता अर सड़का पर पचतै
भुख मिनख री
हाय है कविता
ठोड़-ठोड़ शोषित
सता
समाज अर न्याव रै हातां
दुत्कारिज्योडै़ मिनख रै
मन माय उकळती
लाय है कविता ।
सता रै हाथां
पथभ्रष्ट होंवती
दिसाहीन होंवती
कीं करणै चावना राखती
निबळी पड़ती युवा पीढी रै
दांता री/ किड़किड़ाट है कविता !
खेतां /खळां/चूल्हां
मीला अर सड़का पर खटती
घर धणी रै
पगां री जूती बणी
जापा करती /दिन दिन
तिल-तिल मरती
औरत रै मन मंाय
सृष्टि रो/सरबनास कर सकणै री
क्षमता है कविता !
दिन-दिन
आधी होंवती
जनमत नै भूलती
मनमानी करती
कुर्सी री टांगा नै
आभो दिखावण
जनता खानी स्यूं लागण आळो
आखरी दाव है कविता !
इण रै बाद तो
कवि रै मन मांय
जन्मती अर पळती
रचना रै पेटै
भासां रै दरबार मांय
सबदां रो न्याव है कविता !