सबल और निबल / ‘हरिऔध’
मर मिटे, पिट गये, सहा सब कुछ।
पर निबल की सुनी गयी न कहीं।
है सबल के लिए बनी दुनिया।
है निबल का यहाँ निबाह नहीं।1।
जान पर बीतती किसी की है।
और कोई है जी को बहलाता।
एक को धूल में मिला करके।
दूसरा है कमाल दिखलाता।2।
घर किसी का उजाड़ होता है।
और बनते महल किसी के हैं।
है किसी गेह का दिया बुझता।
औ कहीं दीये जलते घी के हैं।3।
दूसरों का बिगाड़ करके रँग।
रँग अपना सभी जमाते हैं।
एक के नाम को मिटा करके।
दूसरे लोग नाम पाते हैं।4।
क्या कहें बात हम अमीरों की।
आप होंगे दुखी उसे सुन के।
बेकसों का गला दबा देना।
खेल है बायें हाथ का उनके।5।
क्यों न दानों बिना मरे कोई।
क्यों न अपना सभी गँवा बैठे।
पर उन्हें क्या, करेंगे मनमानी।
जब कि पुतले सितम कभी ऐंठे।6।
काम से काम है उन्हें रहता।
वे भला कब हुए किसी के हैं।
और पिसते को पीस देना ही।
नित्ता के चोचले धनी के हैं।7।
रत्न न्यारे मोल का जितना अधिक।
राज सिंहासन मुकुट में हो लगा।
ठीक कहते कि उतना ही अधिक।
वह खून के दूसरों से है रँगा।8।
चैन कितने लोग पाते ही नहीं।
जान कितनी जो न हाथों से गई।
नित कलेजा सैकड़ों कुचले बिना।
पाँव सीधो पड़ नहीं सकते कई।9।
क्या कहें, जी है धड़क उठा बहुत।
फूँक कर घर सैकड़ों फूले फले।
लालसाएँ राज या धान मान की।
आज भी हैं रेततीं लाखों गले।10।
बेबसी जिन पर बरसाती है बहुत।
आँख से आँसू बहा करके घड़ों।
गेंद जैसे हैं लुढ़कते धूल में।
ठोकरें खा खा गिरे सिर सैकड़ों।11।
छिन गये सुख चाह मिट्टी में मिली।
औ कलेजे ने बुरी ठेसें सहीं।
लोग लाखों लुट गये सरबस गया।
औ हुआ क्या? एक की बातें रहीं।12।
आप आँखें खोल करके देखिए।
आज जितनी जातियाँ हैं सिर-धारी।
पेट में उनके पड़ी दिखलायेंगी।
जातियाँ कितनी सिसकती या मरी।13।
दूसरों की पीर कब समझी गयी।
और के दुख की हुई परवाह कब।
बात कहते गरदनें कितनी नपीं।
भौं चढ़ा बैठा कोई बे पीर जब।14।
जी सभी का मांस से ही है बना।
है कलेजा दूसरों के पास भी।
कौन लुट जाता नहीं निजता गँवा।
पर समझता यह नहीं कोई कभी।15।