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सबहिँ बलेल’ / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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चर-चाँचर छल भरल-पुरल, सगरो बाढ़िक छल जोर
जतहु शस्य - श्यामला बाघ छल चानी पिटल उजोर
किछु जन नाव उपर चढ़ि ‘पिकनिक’ हेतु झिल्हेरक खेल
चलइछ गपसप रंग-विरंगक, रचइत रुचि कत मेल
कखनहु शिक्षा कला समीक्षा, कखनहु रस संगीत
शिल्प ज्ञान विज्ञान, खने, फिल्मी चर्चा कत रीत
कखनहु खेल विविध मेलक, खन राजनीति केर वाद
चलइत छल नाव क गति संगहि कत नागरिक विवाद
सभ छल मगन तरुन शिक्षित - दीक्षित जीवन रस पूर
केवल मूढ़ मलाह न बुझइत गूढ़ बात, छल दूर
खेपइत लय करुआरि धार दिस कखनहु गगन निहार
ध्यान एक टा छलै, कोना लय जायब नौका पार
सहसा नजरि पड़ल ओकरा पर, टोकल संगीतज्ञ
गबन जनै छ? नहि उत्तर सुनि कहल, केहन तोँ अज्ञ
पूछल कवि, कविता बुझइत छह? ओ मुह रहल निहारि
राष्ट्रसंघ केर अध्यक्षक नामक क्यो कयल पुछारि
औरो कते प्रश्न सभ पूछल, उत्तर एक नकार
सभ कहि उठल, व्यर्थ तोहर जीवन निष्फल संसार
बकबक तकइत मुँह सबहक मलाह चुप खेबइछ नाव
पूनि सभ अपन रंग रस मातल, गप करइत भरि ताव
सहसा गपसप रोकि कयल हल्ला मल्लाह अधीर
औ बाबू? हेलय जनइत छी की? थिति अछि गंभीर
‘नहि नहि, की थिक बात?’ कहल ओ, ‘नाव डुबल मझधार
गीत न कवित, हिसाब-किताब न एतय लगाओत पार
सुनतहिँ सभक दिमागी गुन कपूर बनि उड़ि कत गेल
गोहराओल, तोँ पार लगाबह मुइलहुँ सवहिँ बलेल