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सब्ज़ी बेचने वाली औरतों की कविता / शहंशाह आलम

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कौन सहता रहेगा
ग्राहकों के इतने दांव-पेच
कठिन है स्पष्ट कहना

कौन अपने चहकने के दिनों को
कौन अपने महकने के दिनों को
कौन अपने धड़कने के दिनों को
कौन अपने चिडि़यों तितलियों-से उड़ने के दिनों को
हवाले कर देना चाहेगा इस वध-स्थल को
सौंप देना चाहेगा पृथ्वी की
इस विस्मयकारी सब्ज़ीमंडी को

सोचे जाने की तरह सोचो
तुम्हारे सोचने तक वो ले आएंगी
हरी और ताज़ा सब्जि़यां
(पृथ्वी का हरा सारा, और
ताज़ा सारा उन्हीं का तो है
जुलाई की आधी रात को
इसे तुम भी महसूस कर सकते हो!)
और उनके अश्व दौड़ेंगे
दिन भर ऐसे ही

वो सब्ज़ी बेचने वाली
जवान स्त्रियां हैं
जो बालपन से निकलकर
युवापन में प्रवेश करती हुईं
कुंवारी ही स्त्री बन जाती हैं
ऊपर से शासकों द्वारा
पढ़े जाने वाले मंत्रों से
अस्वीकृत की हुई होती हैं सो अलग

ऊपर से उनका संसार वज्रपात का
मारा हुआ संसार होता है
ऊपर से ऐसे-ऐसे
ग्रहों-नक्षत्रों में जन्मी होती हैं कि
उनका शरीर समय से पूर्व
अपना वैभव खो चुका होता हैं

सब्ज़ी बेचने वाली जवान स्त्रियां
तुम्हारे समय के सबसे नंगेपन में
ढिठाई के साथ
सब्ज़ियां बेच रही हैं
यह उन्हीं का दमखम है
जबकि तुम विनम्र बने रहने का
दिखावा कर रहे हो
और सब्ज़ियां खरीदते हुए
अजब-ग़ज़ब मुस्कान फेंक रहे हो उनकी देह पर

अमावस के गहरे-काले अंधेरे में
जवानी की बरसात का
जवानी के वसन्त का
जवानी की अल्पना-सोहर का
जवानी की जन्माष्टमी शरद पूर्णिमा का मतलब
जवानी की ईद-बक़रीद का मतलब
उनके लिए बेमानी था
बेमानी था उनके लिए सूर्य-चन्द्र
पृथ्वी-अनंत बेमानी था
बेमानी थे उनके लिए वाक्य और विन्यास
सौन्दर्य-सामग्री का अर्थ बेमानी था
बेमानी था किसी के इंतज़ार में
खिड़कियों के पास खड़े रहना

वर्षों से करोड़ों वर्षों से
पुलिसिया क़िस्म के लोग
कोतवाली के ठीक क़रीब सब्जीमंडी में
सब्ज़ी बेचने वाली जवान स्त्रियों से
नित्यप्रति बहुत-थोड़ी सब्ज़ियां
डांट-डपटकर लेते ही आ रहे थे
और विश्वहित राष्ट्रहित लोकहित में
सहयोग करते ही आ रहे थे इस तरह

चंद ग्राहक
जो कि चेहरे से फूहड़ क़िस्म के लगते थे
लकवाग्रस्त वाक्यों शब्दों
मृत्युग्रस्त अदाओं के सहारे
पैसे कम करा ही रहे थे
और अत्यधिक प्रसन्न हो रहे थे
इस अनंतता में
(इस तरह वे ज़ाहिर करते थे कि
इतिहास के पन्नों से इसी क्षण
बाहर निकले हैं
सब्ज़ियां लेकर पुनः-पुनः उन्हीं पन्नों में
लौट जाएंगे वापस!)

जबकि सब्ज़ी बेचने वाली जवान स्त्रियां
महसूस करती रही थीं कि
मार्च में दिसंबर की ठण्ड बढ़ गई है

तुम नर्म-मुलायम बिस्तर पर लेटकर अथवा
पत्नी से प्रेमिका से चाय बनवाकर
ठण्ड को सार्थक करोगे ही करोगे
जबकि सब्ज़ी बेचने वाली जवान स्त्रियां
अपने विश्वासों को तौलती रहेंगी सुबह दोपहर सांझ
तुम्हारे ही आस पास
तुम्हारे ही पुरातन तुम्हारे ही नवीन में

तुम्हारी पुत्रियां अपने लंबे-घने बालों को
लिक्विड प्रोटीन देंगी
वो तड़प-तड़प रह जाएंगी
(आप घड़ी देख लें
आपके बौखलाने का समय हो गया शायद
जबकि उन्हें तो रोना है अभी साहब!)
पूरे अनगढ़पन से कोसने भी लग जाएंगी
अपने काल के पहाड़ को

एक दिन पृथ्वी अपना हरापन भूल जाएगी
माएं बहनें पत्नियां प्रेमिकाएं
अपनी हंसी और अदाएं भूल जाएंगी
पिता और भाई अपना बांकपन खो चुकेंगे
क्योंकि सब्ज़ी बेचने वाली जवान स्त्रियां
हज़ार बरस में करोड़ बरस में आने वाले
किसी महामहत्वपूर्ण महापर्व के दिन
गर्दआलूद आईने के सामने खड़ी होंगी तो महसूसेंगी
उनके उरोज पर्वतों वाली उठान भूल चुके हैं
उनके शरीर के सारे अश्व थक चुके हैं

जाड़ा जाते महीने के अंतिम दिनों में
समझा जा सकता था कि
सब्ज़ी बेचने वाली जवान स्त्रियां
फिर-फिर प्रकट होती रहेंगी
बार-बार जन्म लेती रहेंगी
संसार की गतियों में
बाज़ार के दृश्यों में वस्तुओं में
पृथ्वी के हरेपन में स्मृतियों में
इसलिए कि दुख अभी
पूरी तरह से भागा नहीं है
इस वितान से
इस पृथ्वी से।