भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सब्र मत कीजिए ...! / सुरेश स्वप्निल
Kavita Kosh से
दिलजलों का अभी ज़िक्र मत कीजिए
वस्ल की रात को हिज्र मत कीजिए
दोस्तों के दिलों का भरोसा नहीं
दुश्मनों की मगर फ़िक्र मत कीजिए
साथ चलना ज़रूरी नहीं था कभी
चल पड़े तो मियाँ ! मक्र मत कीजिए
कौन क्या खाएगा, शाह क्यूँ तय करे
रिज़्क़ पर इस क़दर जब्र मत कीजिए
सुन चुके शोर अच्छे दिनों का बहुत
अब किसी बात पर सब्र मत कीजिए
नस्ले-दहक़ान का रिज़्क़ तो बख़्शिए
ताजिरों को ज़मीं नज़्र मत कीजिए
गिर चुके हैं कई सर इसी शौक़ में
ताज-ओ-तख़्त पर फ़ख्र मत कीजिए !
( 2015 )