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सभागार / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
वे कहते हैं बातें
इतनी बड़ी-
बड़ी, बड़ी
मैं सुनती हूँ, पढ़ती-
विश्वास कीजिए
बहुत सभ्य हूँ, और
सेंसटिव-प्रभावित होती हूँ
अनुपात में सही, सही
मान लेती हूँ
बातें बड़ी थीं-बड़ी,
पर यदि सभागार में ही छूट गई
कर-तल की ध्वनि-सी,
तो मेरी ही छोटी थी
कुछ बुद्धि
पी.एच.डी. हूँ?
तो क्या-डिग्री तो, भैया,
कौन नहीं बिकती?