सभ्यता / मनोज कुमार झा
कुछ की ज़रूरत थी तो ले आया, कुछ ले आया सोचते कि इनकी भी ज़रूरत है
कुछ की चमक रेंगने लगी दिमाग की शिराओं में, कुछ खनके कि हुए माथे पर सवार
कुछ खाली था कुछ आ गए, कुछ आए कुछ भरने का मंतर फूँकते
कुछ पड़ोसिन को देखकर कुछ देखकर बाज़ार में
कुछ टी०वी० की किरपा कुछ तीज-त्योहार में
इतनी गजबज हुई रसोई कि छोटा पड़ गया कबाड़घर
रसोई भी तो चार साँस पीछे खड़ा कबाड़ ही है हाँफता
अब जब बच्चों ने ढूँढ लिए अपने अपने वन, अपनी नदियाँ, अपने पहाड़
अतिथि आते भी तो आते रेस्तराओं से लौटते पानी का बोतल लिए
यहाँ तो बस काक्रोच की टाँगें, चूहे की लार
एक रस्म-सा कि धूल पोंछता हूँ पानी फेंकता हूँ
ठीक ही तो कहती हैं वृद्ध महराजिन
कण-कण जानती हैं वो रस-घरों की कथाएँ
दो कौर चावल फाँक भर अँचार
इन्हीं का सारा साज-सिंगार ।