सम भोग / साहिल परमार
हम
सदियों से चाहते हैं
सम भोग ...सम्भोग ....संभोग।
हमारी माँग एक ही रही है
सम भोग ......सम्भोग.....संभोग
([क्यों भडकता है
मेरी काली चमड़ी देख कर
भडकता है ऐसे ।
यह कोई कूड़े-करकट से निकाला गया शब्द नहीं है,
तेरी देवभाषा ने दिया है शब्द यह।
उसकी आभा को
कुचल डाला है तूने
(हमारी आभा को
कुचल दिया है ऐसे ही)
तूने तो पवित्र-पापी के
स्पृश्य-अस्पृश्य के भेद में
उसे भी नहीं छोड़ा है.
(बेचारा कुत्सित माना गया
अस्पृश्य माना गया
हमारी तरह)
पर अब हम अस्पृश्यों ने
अस्पृश्य शब्दों का भी साथ लिया है।
अब तक
हम पाठ करते रहे
तू ने ही
पवित्र और स्पृश्य
बनाया कुछ शब्दों को।
फ़िर भी हमारी पीड़ा
हमारी व्यथा
हमारे आर्तनाद
पहुँचे तेरे कानों तक ?
हम ने ढाल बनकर
तेरी रक्षा की
तो भी तू
हमारी पीठ में
भौंकता रहा खंजर।
हमने खेत को
खून-पसीने से सींचा
और तू ने हमें निकाला
गाँव से बाहर
हमने दिया भोग
तूने भोगा भोग
तूने दिया भोग कभी ?
हमने भोगा भोग कभी ?
पर अब
एटलस करवट बदलता है।
उत्तर अब दक्षिण
और दक्षिण अब उत्तर
हो रहा है.
हमारी मर्जी
अब तीव्र हुई है,
हमारी माँग अब बुलन्द हुई है.
हम चाहते हैं
सम भोग – समान बलिदान, सामान त्याग।
सम भोग – समान अधिकार,समान प्राप्ति।
अब चमड़ा पकाते हुए हमारे कुण्ड
शब्दों को भी पकाने लगे हैं।
हमारा कपड़ा बुनता करघा
शब्दों को भी बुनने लगा है।
अब हमारी झाडू
शब्दों पर पड़ी धूल को
झाड़ कर साफ़ करनी लगी है.
हमारी भठ्ठी चालू हुई है.
उस में से प्रकट होते शब्दों की आभा को पहचान
उस के प्रति छूताछूत बन्द कर
वरना
आनेवाले कल का इतिहास
खड़ा-खड़ा
तेरे मुँह में
पेशाब की धार करेगा....
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार