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समझ / केशव
Kavita Kosh से
बुहत छोटा था तब वह
इतना छोटा
कि उसे समझ नहीं थी
कि कहाँ-कहाँ होते हैं सुराख़?
जिनसे घुसकर
कैसे-कैसे करती हैं दख़लबाजी
नामुराद चीज़ें
और जीवन की ओर खुलने वाले
दरवाजों को बंद करती हैं
एक-एक कर
कि चीटियाँ कहाँ से आती हैं
कतारबद्ध
कहाँ पहुँचने के लिए
जीवन को बोझ समझकर नहीं
जीवन के लिए कंधों पर
बोझ उठाए
लेकिन जब वह
समझने लायक हुआ
समझ तब भी उससे
दूर थी उतनी ही।