भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समझना दूभर है / राकेश कुमार
Kavita Kosh से
जीवन का क्या सार, समझना दूभर है।
कैसे होगा पार, समझना दूभर है ।
कहती चलकर साँस, नहीं कुछ पता मुझे,
जुड़े हैं किससे तार, समझना दूभर है।
बातें हैं अनमोल, जगत में करने को,
क्यों करते बेकार, समझना दूभर है।
कहीं तरसते लोग, बूँद की खातिर हैं,
कहीं गंग की धार, समझना दूभर है।
कृपणों की है जेब, भरी रहती धन से,
खाली हाथ उदार, समझना दूभर है।
दुनिया कहती प्रेम, करो दुनिया वालों,
करने पर दे मार, समझना दूभर है।
देख न पाती आँख, हृदय की धड़कन को,
फिर भी होती चार, समझना दूभर है ।