समयक घाओ पर पट्टी बन्हैत / दीप नारायण
वर्ख दू हजार बीसक पूर्वार्ध
आ लॉकडाउनक नव सभ्यता मे साँस लैत
हम किछु दिन सँ
दस बाइ बारह केँ एक किरायाक कोठली मे
'आइसोलेट' क' चुकल छी स्वयं केँ
जखन किओ एसगर होइत अछि
तँ ओ स्वयं केँ मोन पारैत अछि वा ईश्वर केँ
समयक घाओ पर पट्टी बन्हैत
एहन विचार आएल हमरा मस्तिष्क मे
हम समय केँ हैंगर पर खोंसि
हेर' लगलहुँ किछु डायरी, फाइल आ किताब सभ
स्कूलक समय केँ पुरना डायरीक पजरा मे
तक्खा पर राखल भेटल
ओ हम स्वयं रही
बहुत वर्खक बाद
ई कहि सकैत छी जेँ कय बिलियन वर्ख पहिले
पृथ्वीक इतिहास केर पहिल युग सँ हमरा भीतर नुकायल हम
फरीछ भ' क' सोझा आयल अछि पहिलबेर
पहिलबेर साक्षात्कार भेल अछि हमरा सँ हमरा
ओना हम स्वयं केँ ताकय केँ प्रयास
पहिलहुँ क' चुकल छी, कय बेर
साहित्य, समाज, नोकरी, परिवार आ बन्ध-सम्बन्धक बीचि
ओझरा क' समये नहि द' सकलियै आइ धरि
झोल-गर्दा सँ बोदा भेल हमरा देखि
हमर हाथ मे
समय रखलक हमर कान्ह पर हाथ आ
भावनाक बाढ़ि मे भसियाति हम
अतीतक स्मृति मे टूटि गेल खेलौना जकाँ उदास देखैत छी
स्वयं केँ
कि तखने खिड़की पर उगि अबैत अछि सुरुज
आ हमर हाथ केँ ल' अपना हाथ मे सोहरबैत
नहुँये सँ हमरा कान मे कहैत अछि
बधाइ हो !
बीत गेल बहुत किछु मे तैयो रहैछ बहुत किछु शेष
एखने भरखर आँगन मे फुलायल अछि
अपराजिताक पहिल फूल
नव दिनक संग नवका उमंग लेल।