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समुद्र के तटपर पहुंचना / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

यहि प्रकार दिन वहुत सिराना। अमरे जलनिधि के सनिधाना॥
मिलि मैना किहु मंत्र विचारा। कोई विधि उतरिय सागर पारा॥
यहि दिशि संगी सकल रहाहीं। हम तुम गुरु गोटी वल जाहीं॥
मैना कहै वचन परमाना। जो पे होय सबहि मनमाना॥
कुंअर कहा सब संगिन पाही। तुम जस कियहु करै कोउ नाहीं॥
पुनि कह कुंअर सुनो संग भाई। विनती एक कहों समुझाई॥

विश्राम:-

जेहि लगि पग मग मंह दियो, देल्यो पावन वुँद।
धरनीश्वर निर्वाहिहों, उतरों पार समुंद॥104॥

चौपाई:-

कहयो समन हम आज्ञाकारी। शिर पर लीजै वचन तुम्हारी॥
हमतो प्राण संकल्प्यो तबहीं। घर ते साथ चले उठि जबहीं॥
वहुतन जीव दिये तुव आगे। हम पुनि अहहिं वही पथ लागे॥
जंह तुम जाछु वहां हम जाहीं। जैसे वृक्ष लता लपटाहीं॥
विलग भये जीवे नहिं कोई। विनु मारे सो मिरतक होई॥

विश्राम:-

जिन प्रभु पंथ निहारेऊ, ते पहुंचे हें पार।
धरनी धीरज रावरी, साहस कत करि हार॥105॥

चौपाई:-

वैठि सब मिलि मंत्र विचारा। केहि विधि जाहय सागर पारा॥
चित्रसेन वोले तेहि ठाहं। हम विनती कछु वकति सुनाई॥
तीरहिं तीर आगु चलि जैये। साहु-जहाज कहूं एक पैये॥
तासे विनय करिय सब काहू। अतिथी जानि करै निर्वाहू॥
तुमरे धर्म महोदधि तरहीं। तुव प्रताप तीरथ व्रत करहीं॥

विश्राम:-

दया करै चित आपने, सब कंह देय पठाय।
जो प्रभु पार उतारहीं, श्रीपुर देखिय जाय॥106॥

चौपाई:-

वहुरि कुंअर सब भेद सुनाऊ। जस गोटी गुरु कियो पसाऊ॥
ओ जेहि भांती लाओ मैना। सो पुनि कहेउ सकल सुख चैना॥
वहुरि कहन समुझत असमोरा। तुम सब बन्धु रहो यदि ओरा॥
सागर अमर असूझ अपारा। चलत न वनै सकल परिवारा॥
जो आयसु तब सबते पाओं। तो मैना मिलि पार सिधाओं॥

विश्राम:-

एक साथ परमारथी, ओ गुरु गोटी अहि।
अवशि मनोरथ पूजिहै, धीर धरो मन मांहि॥107॥

चौपाई:-

इतना वचन सुने सत भाऊ। सब सांगेन ठगमूरी लाऊ॥
वोलि न आव सबन मुख वानी। नयनन अति झरि लायउ पानी॥
पाहन मूरति हवै जनु वैसी। कै पट लिखत चित्रकर जैसी॥
विना रकत अस अंग सोहाऊ। क्षण जीवहिं क्षण प्राण गंवाऊ॥
प्रेम वियोग विकल तन ऐसे। सर सूखे जलजातक जैसे॥

विश्राम:-

देखि अवस्था ताहि क्षण, कुंअर भुलो निज साध।
वार वार मन सोचही, चढ़ो परम अपराध॥108॥

चौपाई:-

वोरि कमंडलु जल ले आऊ। सांचि पवनकरि सबहिं जगाऊ॥
सब जन बैठे देह संभारी। मनमोहन विनती अनुसारी॥
तुम मोहि लागि तजे सव काहु। तुमरी सेवा मोर निवाहू॥
क्षण क्षण मोर प्राण तुम पाहीं। वड दुरयोग महोदधि मांही॥
का जानी कब लागहि तीरा। तेहिते वचन कहत हों धीरा॥

विश्राम:-

प्राण तुम्हारे पास धरि, पार महोदधि जांव।
प्राणमती को साथ ले, आनि मिलों यहि ठांव॥109॥

चौपाई:-

प्रभु प्रताप हृदया धरि साखी। तुमते गोप कछू नहि राखी॥
जो अब तुम सब को मन माना। मन वच मोहि वहै परमाना॥
तब लगि इन सब वचन उचारा। हवै है जो करिहै कर्त्तारा॥
अब तुम करहु सोई परकारा। जेहि विधि उतरो सागर पारा॥
वचन विचारि कहो सब कोऊ। शब्द तुम्हार संपूरन होऊ॥

विश्राम:-

हम दुख सुख सब कीन्हेऊ, तुम हित राजकुमार।
के मिलनी यहि ठांहरे, के मिलनो हरिद्वार॥110॥