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समुद्र के सामने / गोबिन्द प्रसाद

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मैं चुपचाप
खड़ा हूँ समुद्र के सामने
तुम्हारे ध्यान की धूप में
खड़ा हूँ मैं चुपचाप,अपने को अगोरता
समुद्र के सामने;सुनता हुआ
उठ रही
लौटती लहरों की वेदना धवल
विसंगति की धार पर
काट दिया पूरा जीवन
एक तरफ़ मरु-एक तरफ़ जल
बिखरा हुआ पूरा
समेटा हुआ अधूरा
कैसे-कैसे दुख हैं
जो सुख की चादर में लिपटे हैं
चाहता हूँ मैं पूरे समुद्र को इस चादर में बाँध लूँ
समुद्र जो निधि वन है
समुद्र जो सौन्दर्य का सार है
समुद्र जो सर्जना की कोख है
समुद्र जो सर्जना के रक्त में डूबा रहता है उम्र भर
चाहता हूँ मैं
पूरे समुद्र को इस चादर में बाँध लूँ