भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समुद्र तट पर / प्रताप सहगल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हज़ारों टिमटिमाती आंखों से
मेरी ओर देख रहा है
झूलता हुआ एक दैत्याकार महानगर
और मैं इस पार खड़ा हुआ
उस दूरी पर मुस्करा उठता हूं.
मेरे आस-पास रेंग रहे हैं
छोटे-छोटे जानवर
मैं एक बड़े मत्स्य की तरह
पुतलियां घुमाकर करता हूं सर्वेक्षण.
सीपियाँ चुनने का प्रयास
मुझे किसी आदि अवस्था में फेंक देता है
और मैं आधुनिक बनने के लिए
चाँद से भी आगे की बात करने लगता हूं
रेत में धसकता हुआ मैं
उचक-उचक कर हाथ फैला देता हूं
और हर आते हुए संकेत को पकड़ कर
अपनी और जेबों में भर लेता हूं
और जोर से जकड़ लेता हूं अपनी मुट्ठियों को.