भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समुद्र निहारते हुए / प्रेमशंकर शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इन्‍हीं लहरों से
बनी हैं
आँख मेरी


शायद इसी से
देखते सागर
उमड़ती जा रहीं ये
फैलती भी जा रहीं


जिनमें समाता आ रहा
विस्‍तार सागर का