भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सरजमीं से मुखातिब न होती / रमा द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये लंबे-मोटे-पतले पेड
कुछ हरे-भरे,कुछ में है पतझड
इन पेडों की ऊंचाई देख कर
मैं सोचती हूं
कितने वर्षों से ये पेड
ऐसे ही खडे हैं ऊर्ध्वमुखी
मुस्कराते,गुनगुनाते हुए
इनका हाल कोई पूछता नहीं
फिर भी कैसे जीवित हैं ये?
मैं इनकी ओर देखती हूं एकटक
और सोचती हूं
इन्हें जीवन-शक्ति मिलती है कहाँ से?
शायद अपनी सरजमीं से?
हाँ ऐसा ही है।
विदेश में अकेलापन मुझे ही
क्यों कचोटता है?
गैरों की सरजमीं पर-
अपनी जडें जमाना
लोहे के चने चबाने जैसा है
या फिर निर्जीव बनकर जीना है
अपना देश, अपने लोग
अपने देश की आबोहवा
अपने देश की मिट्टी की सुगंध
बहुत कचोटती है मन को
पेड बनकर जीना कितना सहज है?
काश! मैं भी एक पेड बन जाती
तब मुझे भी किसी से
शिकायत न होती
मोहब्बत न होती,तो यह तडपन न होती
अगर मैं अपनी सरजमीं से मुखातिब न होती॥