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सरपंच जी ! / दिनेश सिंह
Kavita Kosh से
गाँव से लौटे हुए सपने
चुरा कर साथ लाए
फूल सरसों के!
गुल ने पूछा
गली की धूल ने पूछा-
कहो क्या हाल है ?
वहाँ से लेकर यहाँ तक
एक मकड़ी ने बुना यह जाल है
नदी-नाले, पहुँच वाले
बह गए, बस फँस गए
बच्चे मदरसों के !
बतकही बहसें बनीं
मेले हुए बाज़ार
सब 'गाहक' हुए
खेत की मूली
मुक़दमें में टंगी झूली
अरे, सरपंच जी नाहक हुए
ब्लेड की खुरचन
लिखा है डाक्टर ने
जानलेवा घाव फरसों के !
गरम मुट्ठी, नरम बोली
घाघरा चोली
कि तोहफ़ा प्यार का
किसी कोने से टटोलो
मामला बनता नहीं है
कहीं भ्रष्टाचार का !
खा गये मुंशी-दरोगा
चहकते अरमान दिल के
आजकल के नहीं बरसों के !