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सरिता: कविता / पयस्विनी / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
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‘सरिते! थम्हू कने, छने अहाँ, विरमि एतय लेब।’
कविते! चलू सङे, एके रङे, बिलमय न देब।।’
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ककरउ उर देशसँ दुहुक भेल जन्म,
प्रकृति कोर खेलि बुझल दुह नेह नर्म।
रसक कत तरंग, अंग-अंगमे उमंग,
जीवनमय यौवनमय इंगित अनंग,
दुहुक रसिक प्रेम - धनिक दूर अज्ञात,
असह विरह उमस सिक्त दुहुक मृदुल गात।
चंचल दृगंचल दुहुक सतत सजल कोर,
अंचलमे वेदनाक खोँछि भरल नोर।
गिरिक कविक अन्तस्तल द्रवित पघिलि बहली,
ककरहु उर-देश करय उर्वर दुहु चलली।
रसमे, धुनिमे समान,
शीतलतामे प्रमान,
अभिशापित जगतीक लेल दुहू वरदान।
तन दुइ, मन एक मात्र, प्राण रसक युगल पात्र,
शब्द अर्थ सन अभिन्न, सीता राधा न भिन्न,
बिम्ब प्रतिबिम्ब रीति, सरिता कविताक प्रीति,
सरिते कविता थिकी, कविते सरिता थिकी।