सरिता: वनिता / पयस्विनी / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
सरिते!
वहइत कतय चललि छी?
प्रियक खोजमे विकलि गललि छी!
वन-वन घुमइत,
पथ-पथ हेरइत,
गिरि-पाहनक रोष नहि गनइत,
चर-चाँचर अनुरोध न सुनइत।
कल कल ध्वनिए करी पुछारी
कतय हमर निधि हृदय बिहारी!
छोड़ि-छाड़ि घर परिजन अविरत,
पतिब्रते! तप निरत निरन्तर
प्रिय छथि प्रतिबिम्वित अभ्यन्तर,
मनक प्रभाव निरन्तर अन्तर।
लहरि-लहरिमे बिन्दु-बिन्दुमे,
द्रवित अहँक उर मिलन-सिन्धुमे
बनिं वनिता, जीवन सहचारी,
तकइत घूमि रहल सुकुमारी।।
तपस्विनी वर वरण अनन्या,
रूप वयस रति-रस लावन्या।
मुनि वचनेँ तनु रचनेँ धन्या,
रुद्रक उर-तल मरु-थल केँ की
प्लावित करबे प्रेमक वन्या?
धनि धनि पुनमति, पर्वत कन्या!
सत्यवंत सिन्धुक चिर-संगिनी,
सावित्रीक चरित्र प्रसंगिनि,
दमयन्ती पति-वरण पुनीता,
वनिता वनकन्या धनि सरिता!
वनवासिनि प्रवासिनी सीता,
प्रेम योगिनी वा ब्रजवनिता?
युग-युग संचित अन्तर ज्वाला-
विश्वक व्यथा द्रवित गिरिबाला।
जल प्रवाह नहि, बहइछ नोर,
कल-कल स्वर नहि हिचकी जोर,
तट नहि खसय हृदय हहरैछ,
सरिता वनिता विकल कनैछ।
सरिते, वनिते!
जीवन भरि की विश्व वेदनासँ
अहँ रहबे कनिते!