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सर्ग - 20 / महर्षि मेँहीँ / हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’

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‘प्रकृति संतुलन खो देती है, तन का क्या कहना।
दुख में, सुख में हर हालत में, आँसू को है बहना॥१॥

सतायाम देहम ‘व्याधिमंदिरम’ फिर भी मत घबड़ाना।
यत्न केरो तो छुट जायेगा, जग में आना-जाना॥२॥

मेँहीं बाबा केरों छेलै, कथन बड़ा ई सुंदर।
जन-जन के कल्याण समैलो, छेलै उनका अंदर॥३॥

प्रकृति कहाँ छोड़े छै ककरा, मेँहीँ बाबा जानै।
ई तथ्यों से दूर कभी भी, अपना के नैंमानैं॥४॥

प्रोस्टेट गलैन्ड फ़नूँ हर्नियाँ, आपरेशन कराबै।
ई भारी कष्टों के बाबा, कारण भी बतलाबै॥५॥

‘धोखे से बचपन में मैंने, जब मछली खाया था।
वह भारी अपराध हुआ था, तभी समझ पाया था॥६॥

करनी का फल भोग रहा हूँ, इससे क्या घबड़ाना।
हर गलती का इस जीवन में, होगा ही फल पाना’॥७॥

कभी आँख में, कभी दाँत में, बाबा दर्द बताबै।
आश्रम केरों सेवक दौड़ी, डाक्टर तुरत बुलाबै॥८॥

डाक्टर के आदर सें बाबा, कुर्सी पर बैठाबै।
सत्संगों के महिमा पूरा, डाक्टर के समझाबै॥९॥

तीसरी अवस्था जीवन के, अंतर्मुख हो ज्यादा।
शांत-एकांत रहै हमेशा, जीवन जीयै सदा॥१०॥

सूरज निकालै, नीचें बैठी, दतवन करतें-करतें।
अंतर्मुख देखी कें सेवक, बोलै डरतें-डरतें॥११॥

हालत भोजन-जलपानों में, देखी आश्रमवासी।
ध्यान दिलाबै आबी-आबी, भजन-भेद अभिलाषी॥१२॥

चलतें-चलतै, खैतें-पीतें, या सूतै के बेरी।
अंतर्मुख देखी बाबा कें, सतसंगी लै घेरी॥१३॥

बड़ा विचित्र दशा सब देखै, कभी-कभी घबड़ाबै।
कखनू डाते सेवक सब कें, कभी-कभी समझाबै॥१४॥

अंतर्मुख होला पर बाबा, डूबै ज्ञान-समुंदर।
दुनिया के सब दृश्य मनोहर, देखै अंदर-अंदर॥१५॥

हँस उठना, रो पड़ना चाहें अंतर्मुख हो जाना।
कभी बहिर्मुख होकर भोजन, जल्दी-जल्दी पाना॥१६॥

कभी-कभी तें मध्य रात में, पहरेदार बुलाबै।
पहरा समय कभी मत सोना, बोली कें समझाबै॥१७॥
हरदम रहै साथ जे सेवक, खोजी पास बुलाबै।
बैठी-बैठी बाबा सब कें, मन के बात बताबै॥१८॥

सान तेरासी तीस जुलाई, बाबा बैठी बोलै।
‘हे अश्वत्थामा मूकतो भव,’ सेवक के मन डोलै॥१९॥

उच्चों-उच्चों आवाजों में, जे नैंवैठाँ छेलै।
ई ठो नाम कहाँ सें कहिनें, बाबा होठे खेलै॥२०॥

सेवक जब पूछै बाबा। ककरों नाम सुनैंछी।
अश्वत्थामा कहाँ मिलै छै, माथा अगर धुनैंछी॥२१॥

परम हंस मेँहीँ बाबा तब, सेवक कें समझाबै।
द्वापर युग के बात यहाँ पर, सब्भै कें बतलाबै॥२२॥

“ द्रोणाचार्य सुनो द्वापर में, गुरूपद में, गुरूपद पाया भारी।
अश्वत्थामा पुत्र उन्हीं का, निकला अत्याचारी॥२३॥

पाया था वरदान अमरता का वह वीज धनुर्धर।
कौरव के दल में वह रहकर, उतार गया था छल पर॥२४॥

युद्ध महाभारत में कौरव, पाण्डव से जब हारा।
अश्वत्थामा के तन-मन में, चढ़ा क्रोध का पारा॥२५॥

पाण्डव के पांचों पुत्रों को, सोये काट दिया था।
उत्तरा के गर्भस्थ शिशु को, भी बेजान किया था”॥२६॥

भीम पकड़कर अश्वत्थामा, लाया सबके आगे।
माँफ किया गुरु पुत्र समझकर, क्षमादान जब माँगे॥२७॥

कृष्ण उसी क्षण आकार बोला, अरे दुष्ट हत्यारा।
निर्दोषों बालक को तूने, बेरहमी से मारा॥२८॥

एक भ्रूण-हत्या का दोषी, आगे पछताओगे।
अत्यंज योनि करके तुम, मर्त्यलोक आओगे॥२९॥

मस्तक से दुर्गंध युक्त तब, हरपल खून बहेगा।
वर्ष हजारों दुख की हालत, पूरा कष्ट सहेगा॥३०॥

अश्वत्थामा भयभीत हुआ, गिरा चरण में आकर।
मुक्ति मार्ग बतलादों केशव, बोला शीश झुकाकर॥३१॥

केशव बोला कलियुग में तब तेरा पाप टलेगा।
महान ब्रह्मचारी संत का, आशीर्वाद मिलेगा॥३२॥

तब होगा उद्धार तुम्हारा, जीवन सफल बनेगा।
दुष्कर्मों का दंड भोगना, सबको यहाँ पड़ेगा”॥३३॥

ई ठो कथा सुनाबै बाबा, फेनूँ मौन रहै छै।
ठाम्हैं ज़ोरों सें मुसकाबै, आगू बात कहै छै॥३४॥

अश्वत्थामा का दुर्दिन अब, अंत हो गया जानो।
मैंने उसको मुक्त किया अब, सत्य यही है मानो॥३५॥

बाबा केरों बात मिलाबों, घटना एक सुनैंछी।
ऊ घटना के ताना-बाना, हम्मे यहाँ बुनैंछी॥३६॥

किस्सा कहै राजेन्द्र बाबू, किवदंती भी मानों।
जमालपुर के आस-पास में, एक कुण्ड छै जानों॥३७॥

ऋषि कुण्ड नाम सें जानैंछै, वहाँ गरम जल झरना।
जीव भयावह वहाँ बसै छै, मगर व्यर्थ छों डरना॥३८॥

ऋषि-मुनि ध्यानों वहाँ करै छै, जगघों बड़ी मनोहर।
जगह-जगह के लोग वहाँ पर, आबै सालों भर॥३९॥

मलेमास जे साल लगै छै, लगै वहाँ पर मेला।
माह भरी लोंगो के जमघट, सगरे ठेलम ठेला॥४०॥

एगो संत अनंत दास जी, छेलै जन हितकारी।
ऋषि कुंडों में आबी-आबी, बैठे छप्पर छारी॥४१॥

आबै कखनूँ बाघ वहाँ पर, बाबा आगू घूमै।
बाबा के गोडों लग बैठी, अंगूठा भी चुमै॥४२॥

कहै बाबा अनंत दास जी, ‘घूमो जंगल जाकर।
निश्छल भक्त यहाँ आते है, नहीं डराना आकार’॥४३॥

एक बार जंगल सें निकली, मानव एगो आबै।
उनका मस्तक पर घावों के, विकत रूप झलकाबै॥४४॥

धूवै घाव गरम पानी सें, रहै बड़ा हत्यारा।
कृष्ण शाप कें भोगे छेलै, द्रोणाचार्य दुलारा॥४५॥

मुक्त हुवै थोड़े दिन बादें, सचमुच अश्वत्थामा।
करने रहै महाभारत में, वें पूरा हंगामा॥४६॥

मन-बुद्धि-चित अहंकार सें, जे आगू बढ़ी आवै।
मोह-पाश सें मुक्त रहै जे, सच्चा संत कहाबै॥४७॥

उनको अंतर्मुख समझना, सबके खातिर भारी।
उन्मुनि यानि कहों मनोलय, रहै अवस्था जारी॥४८॥

सारशब्द में लीन हमेशा, रहै बेखबर हरदम।
साधु-संत कें दुनियादारी, के नैंतनियों सा गम॥४९॥

मनोलय के अवस्था जखनी, बाबा कें पकड़ाबै।
जाड़ा, गर्मी, शरद, शिशिर सब, एक्खै दिन में आबै॥५०॥

कमरा में चौकी पर सुतलों, की बाहर धरती पर।
रातों में चन्दा के बदला, सूरज झलकै ऊपर ॥५१॥

रविवार शनिवार कें समझी, सत्संगों लें बौला।
बहिर्मुखी होला पर लागै, माथा तखनी हौला॥५२॥

सेवक लोग हवील चेयर पर, बाहर खूब घुमाबै।
बाबा कें अंतर्मुख देखी, आश्रम ले कें आबै॥५३॥

बाबा केरों साथ हमेशा, देतें रहलै जौनें।
उनको बराबरी एक्कोपाल, केना करतै कौने॥५४॥

इकतीस मई, साल छियासी, देखों काम निराला।
गेलै अन्त: दृष्टि अचानक आश्रम स्थित गोशाला॥५५॥

कृपा दृष्टि काली गैया पर, बाबा केरों होलै।
‘गाय कष्ट में जरा भागीरथ देखो, बाबा बोलै॥५६॥

पूज्य संत सेवी जी आरू, पूज्य भागीरथ साथे।
गोशाला झटपट पहुँची कें, हाथ लगाबै माथे॥५७॥

गरम तवा रङ् देह जरै छै, जानी हाथ लगैथे।
खबर सुनी कें जांच करै छै, डाक्टर साहव ऐथे॥५८॥

रहै एक सौ छह डिग्री ज्वर, लानी दवा पिलाबै।
वही दिनाँ सें मेँहीँ बाबा, अपनों स्वास्थ्य गमाबै॥५९॥

‘नरसिंह मेहता’ के वाणी, सच्चा तखनी मानैं।
‘वैष्णव जन तेने कहिये जे, पीर्ज पराई जानैं॥६०॥

पूज्य भागीरथ बाबा छेलै, बाबा केरों छाया।
बाबा बिन झलकै हरदम्मे, बिन जीवन के काया॥६१॥

इनको काम बड़ा अलबेला, बाबा कें टहलाना।
चना-छुड़ा के भुंजा लानी, नित जलपान कराना॥६२॥

लंबी दाढ़ी कें कंघी सें, बैठी कें सुलझाना।
ठंड अगर छै तें हाथों में, दस्ताना पहनाना॥६३॥

भोजन के पहिने गल्ला में, लंबा कपड़ा डालै।
अन्न फँसे दांतों में तिनका, डाली रोज निकालै॥६४॥

पूज्य भागीरथ अहीनों सेवक, दुर्लभ छै संसारें।
अहीनों सेवक केरों नैया, नैंफँसतै मझधारै॥६५॥