सर्ग चार / राधा / हीरा प्रसाद 'हरेन्द्र'
मोहन मधूवन झूला झूलै,
सुनोॅ उधर के बात।
अभिमानी कंशासुर काफी,
करै रोज उत्पात॥1॥
वासुदेव सेॅ हारी-पारी,
वसुदेव संग आय।
उलटा-पुल्टा, गरजी-भूकी,
खूबे धूम मचाय॥2॥
खिसियैली बिल्ली खंभा केॅ,
नोचै जेनाँ आय।
वोहिनाँ बौखलाबै कंशो,
वसुदेवोॅ लग जाय॥3॥
वासुदेव केॅ खूब सताबै,
कंशें हर दिन-रात।
उनकोॅ दशा निहारी नारद,
बोलै सुन्दर बात॥4॥
कंशराज! कान्हा-बलदाऊ,
वसुदेवोॅ के लाल।
ऊ दोनों केॅ छोड़ी तोरोॅ,
तेसर के छौं काल॥5॥
बिन कसूरी वसुदेव जी पेॅ,
बरसै छोॅ दिन-रात।
देवकी बहिन के संकट मेॅ,
पड़लोॅ छै अहिवात॥6॥
निर्दोष केॅ तकलीफ देना,
छै अनुचित, अन्याय।
अन्यायी के जन, धन-संपद,
राज रसातल जाय॥7॥
नारद बाबा के वाणी सें,
कंशो कुछ नरमाय।
भेज दूत तब अक्रूरोॅ केॅ,
लेलक तुरत बुलाय॥8॥
कंश कहै तब अक्रूरोॅ सें,
सोचोॅ कोय उपाय।
लानी झट केन्हों कान्हा के,
शेखी दहो भुलाय॥9॥
धनुष यज्ञ, मथुरा के शोभा,
देखन लेॅ बोलाय।
कल-बल-छल सें जेना सपरै,
देबै सीख सिखाय॥10॥
पीड़ कुबलिया अपनोॅ लाती,
भरता देत बनाय।
चाणुर मुष्टिक मुक्खैं-मुक्खैं,
कटहर देत पकाय॥11॥
वहू सें जों बचलै देखबै,
देबै गला उड़ाय।
ई मौका नैं मिलथौं फेरू,
बोलै कंश बुझाय॥12॥
अक्रूर सोचेॅ जाय लानौं,
कृष्ण केॅ ओझराय।
कौनें सुख पैनें छै कहिया,
अपनोॅ घोॅर जलाय॥13॥
पर न मुनासिव टारी देना,
कंशोॅ के आदेश।
अक्रूर चलै गोकुल नगरी,
धरी दूत के भेष॥ं14॥
सौंसे राह अक्रूर मन-मन,
हाँस्सै बड्डी जोर।
सोचै आपन्हैं मनें कखनूँ
धन्य भाग छै मोर॥15॥
अब दर्शन करी जीवन सुफल,
होतै आपन आय।
कंश, देवकी, वसुदेवोॅ के,
देबै हाल सुनाय॥16॥
प्रभु के दर्शन महा कठिन छै,
अक्रूरोॅ के बात।
होनी खातिर खुलले रस्ता,
सुबह-शाम, दिन-रात॥17॥
जल्दी-जल्दी पाँव बढ़ावै,
पहुँचै गोकुल धाम।
देखी शोभा हर्षित मनमा,
जहाँ बसै सुखधाम॥18॥
लागै स्वर्ग समान गोकुला,
मुद-मंगल झलकाय।
बच्चा-बूढ़ोॅ, मर्द-जनानी,
गीत खुशी के गाय॥19॥
मथुरा सें गोकुल के तुलना,
करनें डेग बढ़ाय।
चौको-चौराहा निरखि-निरखि,
गेलै सिर चकराय॥20॥
अक्रूर लखै रंग-ढंग गोकुल के न्यारी।
झलकै सगरे उच्चोॅ-उच्चोॅ महल-अटारी॥
हर्ष नाद सें गूॅजै घर-घर घंटा बाजै।
लागै घर, मंदिर अक्रूर मनेमन गाजै॥21॥
सब्भे ग्रह, नक्षत्र केरोॅ वहीं पर डेरा।
सब देवोॅ के धाम करै सब वहीं बसेरा॥
देह धरी साक्षात् ब्रह्म जब गोकुल ऐलै,
सब देवोॅ के दर्शन खातिर जी ललचैलै॥22॥
ईश्वर केरोॅ वास जहाँ ऊ स्वर्ग कहाबै।
सुखदायी ऊ स्वर्ग भला केकरा न भावै।
जहाँ कृष्ण अवतार वहाँ की होतै बाधा,
सब बाधा जब दूर करै छै लागी राधा॥23॥
राधा-मोहन सें शोभै छै गोकुल नगरी।
मोहन गुण के खान लगै राधा गुण अगरी॥
हाव स्वर्ग मेॅ अक्रूरोॅ के मन हरसाबै।
कखनूँ मोहन नंदलाल के ध्यान लगाबै॥24॥
अक्रूर चलै नन्दलाल के ध्यान लगैनें।
स्वर्ग धरा पर गोकुल के अनुमान लगैनें॥
दूत रूप मेॅ अपनों कुछ पहिचान बनैनें।
पहुँचे ड्यौढ़ी नन्द राय के अलख जगैनें॥25॥
जहाँ नन्द के घोॅर जशोमति मैया छेलै।
निरखत शोभा धाम वहीं अक्रूरोॅ गेलै॥
परिचय-पाती होलै जब समझी मर्यादा।
ऐलै बाबा वहीं न लगलै देरी ज्यादा॥26॥
कुशल क्षेम जखनी बाबा नें पूछै छेलै
धीरें-धीरें वही ठाम मनमोहन गेलै।
करी इशारा बलभैया केॅ पास बुलाबै
बलदाऊ भी आसन बीचें जाय जमाबै॥27॥
गोप-गोपिका लपकी-झपकी हुलकै छेलै।
अक्रूरोॅ के मन, देखी केॅ पुलकै छेलै॥
धीरें-धीरें बात अक्रूरें खोलेॅ तखनी।
बौला छेलै जानै खातिर सब्भे जखनी॥28॥